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Saturday, 30 May 2020

भारत का नेपोलियन समुद्रगुप्त ????

वैसे तो दुनिया में अलग अलग जगह महानता का पैमाना अलग अलग ही है मगर नेपालियन की महानता उसकी वीरता में ही निहित थी। ऐसा कहा जाता है। कि नेपालियन ने अपनी जिंदगी में जितने भी युद्ध किये उनमे से सिर्फ वो एक भी युद्ध हारा नही था। उसका रण कोशैल कमाल का था। इतिहास में नेपोलियन विश्व के सबसे महान सेनापतियों में गिना जाता है।
वही भारत जब अलग-अलग राज्यों में बंटा हुआ था, तब सदियों तक राजाओं का राज रहा।
ऐसे में कई राजा आए और चले गए। अब आज़ाद भारत में राजाओं का राज तो नहीं रहा, किन्तु उनके द्वारा किए गए कार्यों और अदम्य साहस के कई किस्से आज भी मशहूर हैं। इसी क्रम में एक राजा हुए समुद्रगुप्त!


वही समुद्रगुप्त जिन्हें, भारत का नेपोलियन तक कहा गया!
उन्होंने न सिर्फ कई विदेशी शक्तियों को पराजित कर अपनी शक्ति का लोहा मनवाया, बल्कि अपने बेटे विक्रमादित्य के साथ मिलकर भारत के स्वर्ण युग की शुरुआत की।

गुप्त साम्राज्य को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग माना जाता है और इसके लिये सम्राट समुद्रगुप्त के साम्राज्य और उनके कार्यों का महत्वपूर्न योगदान है। गुप्त-वंश एवं गुप्त-साम्राज्य का सूत्रपात सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम ने किया है, तथापि उस वंश का सबसे यशस्वी सम्राट समुद्रगुप्त (335-380 ) को ही माना जाता है। इसके एक नहीं, अनेक कारण हैं। एक तो समुद्रगुप्त बहुत वीर था, दूसरे महान् कलाविद्! और इन गुणों से भी ऊपर राष्ट्रीयता का गुण सर्वोपरि था। असाधारण विजय, अद्भुत रणकौशल, प्रशासनिक एवं कूटनीतिक दक्षता, व्यवहार कुशलता, आखेट प्रियता, प्रजा-प्रेम, न्याय प्रियता समुद्रगुप्त का उद्देश्य उसके राज्य के अतिरिक्त भारत में फैले हुए अनेक छोटे-मोटे राज्यों को एक सूत्र में बाँधकर एक छत्र कर देना था, जिससे भारत एक अजेय शक्ति बन जाये और आये-दिन खड़े आक्राँताओं का भय सदा के लिए दूर हो जाये।

समुद्रगुप्त अच्छी तरह जानता था कि छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त देश कभी भी एक शक्तिशाली राष्ट्र नहीं बन पाता है और इसीलिए देश सदैव विदेशी आक्राँताओं का शिकार बना रहता है। जिस देश की सम्पूर्ण भूमि एक ही छत्र, एक ही सम्राट अथवा एक ही शासन-विधान के अंतर्गत रहती है, वह न केवल आक्राँताओं से सुरक्षित रहती है, अपितु हर प्रकार से फलती-फूलती भी है। उसमें कृषि, उद्योग तथा कला-कौशल का विकास भी होता है। उसकी आर्थिक उन्नति और सामाजिक सुविधा न केवल दृढ़ ही होती है, बल्कि बढ़ती भी है।

सम्राट समुद्रगुप्त देश-भक्त सम्राट था। वह केवल वैभवपूर्ण राज्य सिंहासन पर बैठ कर ही संतुष्ट नहीं था, वह उन लोलुप एवं विलासी शासकों में से नहीं था, जो अपने एशो-आराम की तुलना में राष्ट्र-रक्षा, जन-सेवा और सामाजिक विकास को गौण समझते हैं। मदिरा पीने और रंग-भवन में पड़े रहने वाले राजाओं की गणना में समुद्रगुप्त का नाम नहीं लिखा जा सकता है। वह एक कर्मठ, कर्तव्य-निष्ठ तथा वीर सम्राट था।

एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने की समुद्रगुप्त की विजय यात्रा इस प्रकार शुरू होती हैं

सबसे पहले उसने दक्षिणापथ की ओर प्रस्थान किया और महानदी की तलहटी में बसे दक्षिण-कौशल महाकान्तार, पिष्टपुर, कोहूर, काँची, अवमुक्त , देव-राष्ट्र तथा कुस्थलपुर के राजा महेन्द्र, व्याघ्रराज महेन्द्र, स्वामिदत्त, विष्णुगोप, कोलराज, कुबेर तथा धनञ्जय को राष्ट्रीय-संघ में सम्मिलित किया। उत्तरापथ की ओर उसने गणपति-नाग, रुद्रदेव, नागदत्त, अच्युत-नन्दिन, चन्द्रबर्मन, नागसेन, बलवर्मन आदि आर्यवर्त के समस्त छोटे-बड़े राजाओं को एक सूत्र में बाँधा। इसी प्रकार उसने मध्य-भारत के जंगली शासकों तथा पूर्व-पश्चिम के समतट, कामरुप, कर्तृपुर, नैपाल, मालव, अर्जुनायन, त्रौधेय, माद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक, काक और खर्पपरिक आदि राज्यों को एकीभूत किया।

इस दिग्विजय में समुद्रगुप्त ने केवल उन्हीं राजाओं का राज्य गुप्त-साम्राज्य में मिला लिया, जिन्होंने बहुत कुछ समझाने पर भी समुद्रगुप्त के राष्ट्रीय उद्देश्य के प्रति विरोध प्रदर्शित किया था। अन्यथा उसने अधिकतर राजाओं को रणभूमि तथा न्याय-व्यवस्था के आधार पर ही एक छत्र किया था। अपने विजयाभिमान में सम्राट समुद्रगुप्त ने न तो किसी राजा का अपमान किया और न उसकी प्रजा को संत्रस्त। क्योंकि वह जानता था कि शक्ति बल पर किया हुआ संगठन क्षणिक एवं अस्थिर होता है। शक्ति तथा दण्ड के भय से लोग संगठन में शामिल तो हो जाते हैं किन्तु सच्ची सहानुभूति न होने से उनका हृदय विद्रोह से भरा ही रहता है और समय पाकर फिर वे विघटन के रूप में प्रस्फुटित होकर शुभ कार्य में भी अमंगल उत्पन्न कर देता है।

किसी संगठन, विचार अथवा उद्देश्य की स्थापना के लिये शक्ति का सहारा लेना स्वयं उद्देश्य की जड़ में विष बोना है। प्रेम, सौहार्द, सौजन्य तथा सहस्तित्व के आधार पर बनाया हुआ संगठन युग-युग तक न केवल अमर ही रहता है बल्कि वह दिनों-दिन बड़े ही उपयोगी तथा मंगलमय फल उत्पन्न करता है।

राष्ट्र को एक करने के लिये परम्परा के अनुसार समुद्रगुप्त ने सेना के साथ ही प्रस्थान किया था, किन्तु उसको शायद ही कहीं उसका प्रयोग करना पड़ा हो। नहीं तो अधिकतर राजा लोग उसके महान राष्ट्रीय उद्देश्य से प्रभावित होकर की एक छत्र हो गये थे। कहना न होगा कि जहाँ समुद्रगुप्त ने इस राष्ट्रीय एकता के लिये अथक परिश्रम किया वहाँ उन राजाओं को भी कम श्रेय नहीं दिया जा सकता जिन्होंने निरर्थक राजदर्प का त्याग कर संघबद्ध होने के लिये बुद्धिमानी का परिचय दिया। जिस देश के अमीर-गरीब, छोटे-बड़े तथा उच्च निम्न सब वर्गों के निवासी एक ही उद्देश्य के लिये बिना किसी अन्यथा भाव के प्रसन्नतापूर्वक एक ध्वज के नीचे आ जाते हैं वह राष्ट्र संसार में अपना मस्तक ऊँचा करके खड़ा रहता है। इसके विपरीत राष्ट्रों के पतन होने में कोई विलम्ब नहीं लगता।

सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने प्रयास बल पर सैकड़ों भागों में विभक्त भरत भूमि को एक करके वैदिक रीति से अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया जो कि बिना किसी विघ्न के सम्पूर्ण हुआ, और वह भारत के चक्रवर्ती सम्राट के पद पर प्रतिष्ठित हुआ। उस समय भारतीय साम्राज्य का विस्तार ब्रह्मपुत्र से चम्बल और हिमालय से नर्मदा तक था।

भारत की इस राष्ट्रीय एकता का फल यह हुआ कि लंका के राजा मेघवर्मन, उत्तर-पश्चिम के दूरवर्ती शक राजाओं, गाँधार के शाहिकुशन तथा काबुल के आक्सस नदी तक राज्य करने वाले शाहाँशु आदि शासकों ने स्वयं ही अधीनता अथवा मित्रता स्वीकार कर ली।

इस प्रकार सीमाओं सहित भारत की आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ बनाकर समुद्रगुप्त ने प्रजा रंजन की ओर ध्यान दिया। यह समुद्रगुप्त के संयमपूर्ण चरित्र का ही बल था कि इतने विशाल साम्राज्य का एक छत्र स्वामी होने पर भी उसका ध्यान भोग-विलास की ओर जाने के बजाय प्रजा जन की ओर गया। सत्ता का नशा संसार की सौ मदिराओं से भी अधिक होता है। उसकी बेहोशी सँभालने में एक मात्र आध्यात्मिक दृष्टिकोण ही समर्थ हो सकता है। अन्यथा भौतिक भोग का दृष्टिकोण रखने वाले असंख्यों सत्ताधारी संसार में पानी के बुलबुलों की तरह उठते और मिटते रहे हैं, और इसी प्रकार बनते और मिटते रहेंगे।

चरित्र एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अभाव में ही कोई भी सत्ताधारी फिर चाहे वह राजनीतिक क्षेत्र का हो अथवा धार्मिक क्षेत्र का मदाँध होकर पशु की कोटि से भी उतरकर पिशाचता की कोटि में उतर जाते है।

सम्राट समुद्रगुप्त ने अश्वमेध के समन्वय के बाद जहाँ ब्राह्मणों को स्वर्ण मुद्रायें दक्षिणा में दीं वहाँ प्रजा को भी पुरस्कारों से वंचित न रक्खा। उसने यज्ञ की सफलता की प्रसन्नता एवं स्मृति में अनेकों शासन सुधार किये, असंख्यों वृक्ष लगवाये, कुएँ खुदवाये और शिक्षण संस्थाएँ स्थापित कीं।

एकता एवं संगठन के फलस्वरूप भारत में धन-धान्य की वृद्धि हुई। प्रजा फलने और फूलने लगी। बुद्धिमान समुद्रगुप्त को इससे प्रसन्नता के साथ-साथ चिन्ता भी हुई। उसकी चिन्ता का एक विशेष कारण यह था कि धन-धान्य की बहुतायत के कारण प्रजा आलसी तथा विलासप्रिय हो सकती है। जिससे राष्ट्र में पुनः विघटन तथा निर्बलता आ सकती है। राष्ट्र को आलस्य तथा उसके परिणामस्वरूप जड़ता की सम्भावना के अभिशाप से बचाने के लिये सम्राट ने स्वयं अपने जीवन में संगीत, कला, कौशल तथा काव्य साहित्य की अवतारणा की। क्योंकि वह जानता था कि यदि वह स्वयं इन कलाओं तथा विशेषताओं को अपने जीवन में उतारेगा तो स्वभावतः प्रजा उसका अनुकरण करेगी ही। इसके विपरीत यदि वह विलास की ओर अभिमुख होता है तो प्रजा बिना किसी अवरोध के आलसी तथा विलासिनी बन जायेगी।

सारे भारतवर्ष में अबाध शासन स्थापित कर लेने के पश्चात्‌ इसने अनेक अश्वमेध यज्ञ किए और ब्राह्मणों दीनों, अनाथों को अपार दान दिया। शिलालेखों में इसे 'चिरोत्सन्न अश्वमेधाहर्त्ता' और 'अनेकाश्वमेधयाजी' कहा गया है। हरिषेण ने इसका चरित्रवर्णन करते हुए लिखा है-

'उसका मन सत्संगसुख का व्यसनी था। उसके जीवन में सरस्वती और लक्ष्मी का अविरोध था। वह वैदिक धर्म का अनुगामी था। उसके काव्य से कवियों के बुद्धिवैभव का विकास होता था। ऐसा कोई भी सद्गुण नहीं है जो उसमें न रहा हो। सैकड़ों देशों पर विजय प्राप्त करने की उसकी क्षमता अपूर्व थी। स्वभुजबल ही उसका सर्वोत्तम सखा था। परशु, बाण, शकु, आदि अस्त्रों के घाव उसके शरीर की शोभा बढ़ाते थे। उसकी नीति थी "साधुता का उदय हो तथा असाधुता कर नाश हो"। उसका हृदय इतना मृदुल था कि प्रणतिमात्र से पिघल जाता था। उसने लाखों गायों का दान किया था। अपनी कुशाग्र बुद्धि और संगीत कला के ज्ञान तथा प्रयोग से उसने ऐसें उत्कृष्ट काव्य का सर्जन किया था कि लोग 'कविराज' कहकर उसका सम्मान करते थे।'

समुद्रगुप्त के 6 प्रकार के सिक्के इस समय में मिलते हैं।

पहले प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें वह युद्ध की पोशाक पहने हुए है। उसके बाएँ हाथ में धनुष है, और दाएँ हाथ में बाण। सिक्के के दूसरी तरफ़ लिखा है, "समरशतवितत-विजयी जितारि अपराजितों दिवं जयति" सैकड़ों युद्धों के द्वारा विजय का प्रसार कर, सब शत्रुओं को परास्त कर, अब स्वर्ग को विजय करता है।

दूसरे प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें वह परशु लिए खड़ा है। इन सिक्कों पर लिखा है, "कृतान्त (यम) का परशु लिए हुए अपराजित विजयी की जय हों।

तीसरे प्रकार के सिक्कों में उसका जो चित्र है, उसमें उसके सिर पर उष्णीष है, और वह एक सिंह के साथ युद्ध कर उसे बाण से मारता हुआ दिखाया गया है। ये तीन प्रकार के सिक्के समुद्रगुप्त के वीर रूप को चित्रित करते हैं।

पर इनके अतिरिक्त उसके बहुत से सिक्के ऐसे भी हैं, जिनमें वह आसन पर आराम से बैठकर वीणा बजाता हुआ प्रदर्शित किया गया है। इन सिक्कों पर समुद्रगुप्त का केवल नाम ही है, उसके सम्बन्ध में कोई उक्ति नहीं लिखी गई है। इसमें सन्देह नहीं कि जहाँ समुद्रगुप्त वीर योद्धा था, वहाँ वह संगीत और कविता का भी प्रेमी था।

समुद्रगुप्त के जिस प्रकार के सिक्के आजकल मिलते हैं अगर उतने ही वजन के सोने के सिक्के आज बनाये जाए तो एक सिक्के कीमत पांच लाख रु से ज्यादा होगी सोचो उस समय समुद्रगुप्त ने ऐसे लाखो सिक्के चलवाए थे कितना धनी था हमारा भारतवर्ष

अक्सर इतिहास में हमको पढ़ाया जाता हैं समुद्रगुप्त भारत का नेपोलियन था हकीकत में देखा जाए समुद्रगुप्त कभी नेपोलियन नहीं हो सकता और नेपोलियन कभी समुद्रगुप्त बन ही नहीं सकता हैं समुद्रगुप्त ने कभी मात नहीं खाई जबकि नेपोलियन ने ब्रिटिश कमांडर नेल्सन से और रूस से मात खाई थी नेपोलियन तो साम्राज्यवादी था जबकि समुद्रगुप्त राष्ट्रवादी था उसने तो भारत को एक बनाया जो उसके भारतवर्ष के सपने में शामिल होते गए वे राज्य अधीन होते हुए भी स्वतंत्र थे

केवल एक संयमी सम्राट के हो जाने से भारत का वह काल इतिहास में स्वर्णयुग के नाम से प्रसिद्ध है, तो भला जिस दिन भारत का जन-जन संयमी तथा चरित्रवान बन सकेगा उस दिन यह भारत, यह विशाल भारत उन्नति के किस उच्च शिखर पर नहीं पहुँच जायेगा?














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