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Saturday, 9 September 2023

महालया


पश्चिम बंगाल या पुराने असम मे मातारानी की भव्य पूजा के साथ ब्रिटिश और भारतीय परिवारो की मित्रता 







हर साल शारदीय नवरात्रि के समय पश्चिम बंगाल में धूमधाम से दुर्गा पूजा का आयोजन किया जाता है ।दुर्गा पूजा के समय 9 दिनों तक मां शक्ति की आराधना की जाती है। पश्चिम बंगाल में जगह-जगह भव्य पंडाल तैयार किए जाते हैं। बंगाल के विभिन्न शहरों में होने वाली दुर्गा पूजा की रौनक देखती ही बनती है। बड़े-बड़े पंडाल और आकर्षक मूर्तियों के साथ शानदार तरीके से बंगाली समाज देवी दुर्गा की पूजा करता है। पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा आयोजित करने की शुरुआत को लेकर कई कहानियां हैं। पहली बार दुर्गा पूजा कैसे हुई, क्यों आयोजित की गई, इसको लेकर कई दिलचस्प किस्से हैं। आइए जानते हैं उनके बारे में। 

प्लासी के युद्ध के बाद पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन
कहते हैं कि पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा की शुरुआत 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद हुई थी। प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की जीत पर भगवान को धन्यवाद देने के लिए पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया था। आपको बता दें कि प्लासी के युद्ध में बंगाल के शासक नवाब सिराजुद्दौला की हार हुई थी। बंगाल में मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर गंगा किनारे प्लासी नाम की जगह है। यहीं पर 23 जून 1757 को नवाब की सेना और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ।ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में युद्ध लड़ा और नवाब सिराजुद्दौला को शिकस्त दी। हालांकि युद्ध से पहले ही साजिश के जरिए रॉबर्ट क्लाइव ने नवाब के कुछ प्रमुख दरबारियों और शहर के अमीर सेठों को अपने साथ कर लिया था। 

कहा जाता है कि युद्ध में जीत के बाद रॉबर्ट क्लाइव ईश्वर को धन्यवाद देना चाहता था लेकिन युद्ध के दौरान नवाब सिराजुद्दौला ने इलाके के सारे चर्च को नेस्तानाबूद कर दिया था। उस वक्त अंग्रेजों के हिमायती राजा नव कृष्णदेव सामने आए। उन्होंने रॉबर्ट क्लाइव के सामने भव्य दुर्गा पूजा आयोजित करने का प्रस्ताव रखा था। इस प्रस्ताव पर रॉबर्ट क्लाइव भी तैयार हो गए थे। उसी वर्ष पहली बार कोलकाता में दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया था। 

पूरे कोलकाता को शानदार तरीके से सजाया गया। कोलकाता के शोभा बाजार के पुरानी हवेली में दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ था। इसमें कृष्णनगर के महान चित्रकारों और मूर्तिकारों को बुलाया गया थाा। भव्य मूर्तियों का निर्माण हुआ था। बर्मा और श्रीलंका से नृत्यांगनाएं बुलवाई गई थीं। रॉबर्ट क्लाइव ने हाथी पर बैठकर समारोह का आनंद लिया था। इस आयोजन को देखने के लिए दूर-दूर से चलकर लोग कोलकाता आए थे। इस आयोजन के प्रमाण के तौर पर अंग्रेजों की एक पेटिंग मिलती है, जिसमें कोलकाता में हुई पहली दुर्गा पूजा को दर्शाया गया है. 

कहा जाता है कि राजा नव कृष्णदेव के महल में भी एक पेंटिंग लगी थी। इसमें कोलकाता के दुर्गा पूजा आयोजन को चित्रित किया गया था। इसी पेंटिंग की बुनियाद पर पहली दुर्गा पूजा की कहानी कही जाती है। 1757 के दुर्गा पूजा आयोजन को देखकर अमीर जमींदार भी अचंभित हो गए थे। बाद के वर्षों में जब बंगाल में जमींदारी प्रथा लागू हुई तो इलाके के अमीर जमींदार अपना रौब दिखाने के लिए हर साल भव्य दुर्गा पूजा का आयोजन करते थे। इस तरह की पूजा को देखने के लिए दूर-दूर के गांवों से लोग आते थे। धीरे-धीरे दुर्गा पूजा लोकप्रिय होकर सभी जगहों पर होने लगी।


जानिए क्या है महालया 







बंगाल की धरती पर जिस तरह दुर्गा पूजा का महत्व रहा है, उसी तरह महालया को भी बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। बंगाल में महालया का हर कोई इंतजार करता है क्योंकि यहां पुत्री के रूप में मां भवानी को बुलाया जाता है। इस दिन देवी दुर्गा की प्रतिमा पर रंग चढ़ाया जाता है, उनकी आंखें बनाई जाती हैं और प्रतिमा समेत मंडप को सजाया जाता है। मां दुर्गा की मूर्ति बनाने वाले कारीगर अपना कार्य पहले ही शुरू कर लेते हैं लेकिन महालया के दिन मूर्ति को अंतिम रूप दिया जाता है। महालया के दिन पितृपक्ष समाप्त होते हैं और इसी दिन से देवी पक्ष की शुरुआत हो जाती है। पितृपक्ष की तरह ही देवी पक्ष भी 15 दिन का होता है, जिसमें से 10 दिन नवरात्रि के होते हैं और 15वें दिन लक्ष्मी पूजा के साथ देवी पक्ष समाप्त हो जाता है अर्थात शरद पूर्णिमा के साथा देवी पक्ष समाप्त होता है। 

महत्व 
वैसे तो महालया बंगालियों का पर्व है लेकिन इसे देशभर में मनाया जाता है। बताया जाता है कि महिषासुर नामक राक्षस का अंत करने के लिए महालया के दिन ही देवी-देवताओं ने मां दुर्गा का आह्वान किया था। महालया अमावस्या की सुबह को पितर पृथ्वी लोक से विदाई लेते हैं और शाम के समय मां दुर्गा अपने योगनियां और पुत्र गणेश व कार्तिकेय के साथ पृथ्वी पर पधारते हैं। इसके बाद नौ दिन घर-घर में रहकर अपनी कृपा भक्तों पर बनाए रखती हैं। बंगाल में दुर्गा पूजा का इंतजार रहता है और इस दिन देवी दुर्गा की कहानियों को बच्चों को सुनाया जाता है।
नवरात्रि के नौ दिनों में माता पार्वती अपने शक्तियों और नौ रूपों के साथ अपने घर अर्थात पृथ्वी लोक पर आती हैं। मां अपने साथ अपनी सहचर योगनियां और पुत्र गणेश व कार्तिकेय भी पृथ्वी पर पधारते हैं। पृथ्वी देवी पार्वती का मायका है और माता नवरात्रि के नौ दिनों में अपने मायके आती हैं। पृथ्वी पर रहते हुए वह लोगों के कष्टों को दूर करती हैं और आसुरी शक्तियों का भी नाश करती हैं। माता पार्वती हिमालय की पुत्री हैं और हिमालय पृथ्वी के राजा थे इसलिए बंगाल में महालया के दिन पुत्री रूप में माता को बुलाया जाता है और कन्या भोज करवाया जाता है। माता पार्वती की शादी जगतपिता भोलेनाथ के साथ हुई है इसलिए माता पार्वती को जगत माता कहा जाता है। 

पार्वती माता का महात्म्य 
माता पार्वती अपने मायके आने के लिए महालया के दिन कैलाश पर्वत पर से विदा लेती हैं। इसलिए महालया के दिन माता की अगवानी में वंदना की जाती है और स्वागत के लिए खास प्रार्थना की जाती है। इसके अगले दिन से यानी नवरात्रि से मां घर-घर में विराजती हैं। मां जब-जब नवरात्रि में आती हैं तब उनका अलग होता है। इस बार सोमवार से शारदीय नवरात्र प्रारंभ हो रहे हैं इसलिए इस बार मां हाथी पर सवार होकर धरती पर आएंगी।
पितरों को किया जाता है विदा - 

महालया पितृपक्ष का आखिरी दिन होता है। इस तिथि को सर्वपितृ अमावस्या भी कहा जाता है। इस दिन भूले बिछड़े पितरों का श्राद्ध किया जाता है और पितरों को तर्पण करते उनको विदा किया जाता है। साथ ही महालया अमावस्या के दिन पितरों से प्रार्थना की जाती है कि हमसे जो गलतियां हुई हैं, उसके लिए माफ कर दें और अपनी कृपा हमेशा बनाए रखें। वही शाम के समय मां दुर्गा की पृथ्वी लोक पर आने के लिए प्रार्थना की जाती है। महालया के दिन ही मां अपना पहला कदम पृथ्वी पर रखती हैं। मान्यता है कि इस अवधि में कोई भी शुरू किया गया कार्य हमेशा फलदायी माना जाता है।



महिषासुरमर्दिनी माता का महात्म्य - 

महिषासुर दानवराज रम्भासुर का पुत्र था, जो बहुत शक्तिशाली था। कथा के अनुसार महिषासुर का जन्म पुरुष और महिषी (भैंस) के संयोग से हुआ था। इसलिए उसे महिषासुर कहा जाता था। वह अपनी इच्छा के अनुसार भैंसे व इंसान का रूप धारण कर सकता था।


वरदान पाकर लौटने के बाद महिषासुर सभी दैत्यों का राजा बन गया। उसने दैत्यों की विशाल सेना का गठन कर पाताल लोक और मृत्युलोक पर आक्रमण कर सभी को अपने अधीन कर लिया। फिर उसने देवताओं के इन्द्रलोक पर आक्रमण किया। इस युद्ध में भगवान विष्णु और शिव ने भी देवताओं का साथ दिया, लेकिन महिषासुर के हाथों सभी को पराजय का सामना करना पड़ा और देवलोक पर भी महिषासुर का अधिकार हो गया। वह तीनों लोकों का अधिपति बन गया।


जब सभी देव भगवान विष्णु के पास अपनी समस्या लेकर पहुंचे । तब भगवान विष्णु जी, शिवजी और अन्य सभी देवताओं के तेज एकसाथ मिलकर एक नारी के रूप मे प्रवृत्ति हुआ। इन देवी की उत्पत्ति महिषासुर के अंत के लिए हुई थी, इसलिए इन्हें 'महिषासुर मर्दिनी' कहा गया। समस्त देवताओं के तेज से प्रकट हुई देवी को देखकर पीड़ित देवताओं की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा।


भगवान शिव ने देवी को त्रिशूल दिया। भगवान विष्णु ने देवी को चक्र प्रदान किया। इसी तरह, सभी देवी-देवताओं ने अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र देवी के हाथों में सजा दिए । इंद्र ने अपना वज्र और ऐरावत हाथी से उतारकर एक घंटा देवी को दिया। सूर्य ने अपने रोम कूपों और किरणों का तेज भरकर ढाल, तलवार और दिव्य सिंह यानि शेर को सवारी के लिए उस देवी को अर्पित कर दिया। विश्वकर्मा ने कई अभेद्य कवच और अस्त्र देकर महिषासुर मर्दिनी को सभी प्रकार के बड़े-छोटे अस्त्रों से शोभित किया। अब बारी थी युद्ध की। थोड़ी देर बाद महिषासुर ने देखा कि एक विशालकाय रूपवान स्त्री अनेक भुजाओं वाली और अस्त्र शस्त्र से सज्जित होकर शेर पर बैठ उसकी ओर आ रही है।


महिषासुर की सेना का सेनापति आगे बढ़कर देवी के साथ युद्ध करने लगा। उदग्र नामक महादैत्य भी 60 हजार राक्षसों को लेकर इस युद्ध में कूद पड़ा। महानु नामक दैत्य एक करोड़ सैनिकों के साथ, अशीलोमा दैत्य पांच करोड़ और वास्कल नामक राक्षस 60 लाख सैनिकों के साथ युद्ध में कूद पड़े सारे देवता इस महायुद्ध को बड़े कौतूहल से देख रहे थे। दानवों के सभी अचूक अस्त्र-शस्त्र देवी के सामने बौने साबित हो रहे थे। रणचंडिका देवी ने तलवार से सैकड़ों असुरों को एक ही झटके में मौत के घाट उतार दिया और असुरों की पूरी सेना के साथ ही महिषासुर का भी वध कर दिया।
जो जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार करती है । वही माता सदा हमारी रक्षा करती है भक्ति से प्रसन्न होने पर सबको शक्ति और बुद्धि प्रदान करती है। और हम सदा उनको नमन करते है 

1 comment:

  1. जय हो मां शेरावाली की 🔱🙏

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